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________________ (६) नय - यह ध्येय प्राप्ति का 'आधार' है । (७) नय - यह यथार्थ रूप में ज्ञान- प्रक्रिया का 'प्रतिपादक' और उसकी यथार्थता का मूल' है । इत्यादि अनेक उपमायें नय के विषय में दी जाती रही हैं । (३) नय की व्यापकता ऐसे अनेक उपमावाले अनुपम नय को जैनदर्शन में केन्द्रस्थान दिया गया है । इतना ही नहीं, किन्तु उसकी सर्वव्यापकता को भी स्वीकार किया गया है। इस विषय के सम्बन्ध में देखिये 'विशेषावश्यक' की निम्नलिखित गाथा - -- .. "नत्थि नएहिं विहरणं, सुत्तं प्रत्यो य जिरणमए किंचि । श्रासज्ज उ सोयारं, नए नयविसारश्रो बूम्रा ।।” [विशेषा० २२७७ ] [ छाया "नास्ति नयविहीनं, सूत्रमर्थश्च जिनमते किञ्चित् । श्रासाद्य तु श्रोतारं, नयान् नयविशारदो बूश्रा ॥ " ] अर्थात् जैनदर्शन में नय रहित कोई सूत्र और अर्थ नहीं है । इसलिये नयविशारद ( अर्थात् नय में निष्णात आठ ---
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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