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________________ ऐसे गुरु ) योग्य श्रोता मिलने पर नय का विविध प्रकार से कथन करते हैं । (४) नय के भेद विश्व में जितने भी वचन प्रकार हैं वे सभी नय की कोटि में आ जाते हैं । इस बात की घोषणा जैनदर्शन कर रहा है । इस दृष्टि से नयों की अनंतता है, अर्थात् नय अनंत हैं । इस विषय में समर्थ विद्वान् श्रीजिनभद्रगरणक्षमाश्रमणजी महाराज ने कहा है कि "जावतो वयरणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाश्रो । ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥ " [ विशेषावश्यक भाष्य २२६५ ] अर्थात् वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं नय के भी उतने ही भेद हैं। वे पर सिद्धान्त रूप हैं, और वे सब मिलकर जिनशासन रूप हैं । तार्किकचक्रचूडामणि प्राचार्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी म० श्री ने भी 'सन्मतितर्क' में कहा है कि CAC "जावइया वयरणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया । जावइया नयवाया, तावइया चैव परसमया ।। " [ सन्मतितर्क गाथा - १४४ ] न
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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