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________________ सौ-सौ भेद होते हैं । कुल नैगमादि सातों नयों के सात सौ [७००] भेद होते हैं । श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी महाराज ने भी विशेषावश्यक में ऐसा ही कहा हैएक्केक्को य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव ।। [विशेषा०, २२६४] अर्थात्-एक-एक नय के सौ-सौ भेद होने से नयों के कुल सात सौ भेद होते हैं ॥१६॥ . [ २० ] मतान्तरे नयानां पञ्चैव भेदाः - [ उपजातिवृत्तम् ] शब्दानयाद् यो परवर्तिनौ स्तः, तो शब्द अन्तर्भवतो मतेन। नयाऽस्तु पञ्चैव तदात्मभेदैः, भवन्ति ते पञ्चशती भिदोऽत्र ॥२०॥ अन्वय : 'शब्दान्नयाद् यो परवतिनौ स्तः, तौ शब्द अन्तर्भवतः मतेन, तदात्म भेदैः नयाः तु पञ्चैव भवन्ति, ते अत्र पञ्चशती भिदः (भवन्ति)' इत्यन्वयः । नयविमर्शद्वात्रिशिका-५२
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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