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________________ करता है । उसी प्रकार से संग्रह नय का विषय नैगमनय की अपेक्षा सूक्ष्म है, क्योंकि वह मात्र सामान्य को ही मान्यता प्रदान करता है तो व्यवहार नय संग्रहनय से भी विशुद्ध है । वह संग्रहनय द्वारा गृहीत विषय की विशेषधर्मिता का आश्रय लेकर विभक्तीकरण करता है तो ऋजुसूत्रनय का विषय व्यवहार नय से सूक्ष्म है, क्योंकि व्यवहार नय का विषय त्रिकालसत्तात्मक है जब कि ऋजुसूत्र प्रतीतानागत को छोड़कर वर्तमान को ही स्वीकार करता है । शंब्दनय काल, कारक, लिङ्ग और उपसर्ग आदि के भेद से अर्थ में भेद मानकर चलता है; इसलिये शब्दनय का विषय ऋजुसूत्र नय से भी सूक्ष्म है । समभिरूढ़नय व्युत्पत्ति भेद से अर्थभेद की नीति पर विश्वास रखकर चलता है; इसलिये समभिरूढ़नय का विषय शब्दनय से भी अल्प है । एवंभूत नय अर्थ को तभी उस शब्द द्वारा वाच्य मानता है, जबकि व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ उस पदार्थ में घटित हो रहा हो ; इसलिये एवंभूत नय का विषय तो प्रति अल्प हो जाता है । इस प्रकार सभी सातों नय पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्मतर होते गये हैं तथा एक-एक नय के नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ५१
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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