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________________ ऋजुसूत्रनय है । अथवा जिसका सरलता से बोध हो, या जो वस्तु को सरलता से ग्रहण करता हो वह भी ऋजुसूत्रनय कहा जाता है। यह नय वस्तु की अतीत और अनागत अर्थात् भूत तथा भविष्य की सत्ता-उसके भूत भविष्य पर्याय को काल की अपेक्षा से स्वीकार नहीं करता, वह तो केवल वस्तु की वर्तमान सत्ता-पर्याय को ही स्वीकार करता है । ऋजुसूत्रनय वर्तमान में जो इन्द्रियों की दृष्टिगोचरता की पूर्ति करता हो; जो . सम्मुख भौतिक स्थिति में विद्यमान हो; जो चार्वाक दर्शन की तरह वर्तमान काल की स्थिति में ही सत्तात्मक हो उसे ही स्वीकार करता है। किन्तु जो अतीत के गर्त में भूतकाल के (अविद्यमानता से) अधीन वस्तु हो या भविष्य की स्वप्नावस्था के समान प्राशायुक्त हो, उसे स्वीकार नहीं करता । ऋजुसूत्रनय भूत तथा भविष्य की सदा उपेक्षा करता है तथा वर्तमान काल के परिधि पर्याय को ही स्वीकार करता है क्योंकि पर्याय की स्थिति वर्त्तमानकाल में ही रहती है; भूत तथा भविष्य तो द्रव्य के विषय हैं । इससे यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि भूत तथा भविष्य का यह नय विरोध करता है, किन्तु अप्रयोज्य होने पर मात्र उससे उपेक्षित रहता है । ऋजुसूत्र काल को अपेक्षा से क्षण-क्षण में पदार्थ को नयविमर्शद्वात्रिशिका-३०
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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