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________________ व्याख्या : भूतं प्रतीतं च भविष्यत् अनागतं द्विप्रकारवस्तु ( नाम पदार्थः) पर्यायं वै ध्रुवं तुर्यः चतुर्थो नय ऋजुसूत्र नामा ऋजुसूत्रनाम एतद्नामा न वेत्ति (न ज्ञातं भवति इत्यर्थः ) अर्थात् ऋजुसू नये कालापेक्षा प्रतीतस्य च अनागतस्य नैव वर्त्तते । ऋजुः अर्थात् सरलः सूत्रः सम्यक् सूचयति वर्त्तमानकालापेक्षया यत् सरलतया दृष्टिगोचरं करोति एतादृशः पर्यायापेक्षी ऋजुसूत्रनयः । वर्त्तमानकालातिरिक्त यत् किंचित् ग्रनागते वा प्रतीते प्रभूतं वा भविष्यति तयोः भावं नैव मन्यते ऋजुसूत्रनयः । यत् प्रवर्तमानं अस्ति क्षणभङ्गुरसत्तया दृष्टिपथमायाति तमेव मन्यते विश्वसितिः । पद्यानुवाद : [ उपजातिवृत्तम् ] अनागतातीत पदार्थ को ये, नहीं प्रपेक्षा ऋजुसूत्र में है । ये वस्तु का संप्रति काल माने, उसे स्वयं की ऋजुता हि जाने ।।११।। भावानुवाद : ऋजु और सूत्र दो शब्दों से मिलकर ऋजुसूत्र बना है । ऋजु का अर्थ है सरल तथा सूत्र का अर्थ है सूचित करने वाला । अर्थात् सरल अर्थ को सूचित करने वाला नयविमर्शद्वात्रिंशिका - २६
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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