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________________ इतना ही नहीं किन्तु सर्वत्र समता के मधुर वातावरण का सृजन करती है । जैनदर्शन के इस नयवाद को अपेक्षावाद भी कहते हैं । विश्व में जैसे सूर्य का प्रकाश आते ही अंधकार अदृश्य हो जाता है, वैसे ही जैनदर्शन के नयवाद का प्रकाश आते ही संघर्षादि शान्त हो जाते हैं । सर्वत्र शान्ति तथा समन्वय के इस सुधावर्षण में ही नयवाद की उपयोगिता निहित है । नय सर्वव्यापक हैं । वस्तुतत्त्व का यथार्थज्ञान 'नय' के द्वारा ही हो सकता है । नय के द्वारा होनेवाला ज्ञान ही असन्दिग्ध एवं निर्भ्रान्त है, क्योंकि वह वस्तु को विविध दृष्टि बिन्दुनों से देखने का यत्न करता है और अपने से अतिरिक्त दृष्टिकोण का प्रतिषेध नहीं करता । यही नयवाद की विशिष्टता और उपयोगिता है । प्रस्तुत 'नयविमर्श - द्वात्रिंशिका' की रचना सातों नयों का संक्षेप में परिज्ञान करने के लिये जैसे महाविद्वान् उपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराजश्री ने 'नकरणका' की रचना की है, वैसे ही मैंने भी उसी का आलम्बन लेकर प्रस्तुत 'नयविमर्शद्वात्रिंशिका' की संस्कृत श्लोकबद्ध रचना की है । तदुपरांत उसकी संस्कृत व्याख्या तथा हिन्दी में पद्यानुवाद, भावानुवाद तथा सरलार्थ भी - ग्यारह -
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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