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________________ परीचामुख भाषार्थ--संस्कार ( धारणारूप अनुभव ) की प्रकटता से होने वाले, तथा 'तत्' ( वह ) इस प्राकार वाले, ज्ञान को स्मृति कहते हैं । उसी को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं:स देवदत्तो यथा ॥४॥ भाषार्थ--जैसे कि वह देवदत्त । भावार्थ--देवदत्त को पहले देखा और धारणा भी करली, उसके बाद फिर कभी उस धारणा के प्रकट होने पर ज्ञान होता है कि वह देवदत्त । बस, इसी को स्मरण कहते हैं । प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप व कारण । दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेदं तत्सदृशं तहिलक्षणं तत्पतियोगीत्यादि॥५॥ भाषार्थ--जो प्रत्यक्ष और स्मरणज्ञान से उत्पन्न होता है और जो एकत्व, सादृश्य तथा वैलक्षण्य आदि विवक्षित धर्मों से युक्त वस्तु को ग्रहण करता है, उस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं, और जब जिस धर्म को ग्रहण करता है तब उसका नाम भी वैसा ही पड़ जाता है, जैसे, यह वही है ( एकत्वप्रत्यभिज्ञान ) यह उसके सदृश है ( सादृश्य प्रत्यभिज्ञान ) यह उसेस विलक्षण है ( वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान ) यह उसका प्रतियोगी है ( प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान) भावार्थ--यह प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष और स्मरणज्ञान की सहायता से उत्पन्न होता है, और फिर जिस वस्तु को पहले
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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