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________________ भाषा-मर्थ। प्रत्यक्ष, स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान की आवश्यकता होती है वह ऐसे होती है, एक पण्डितजी अपने शिष्य को साथ लेकर भूमणार्थ गए, वहां एक पहाड़ में धूम दीख पड़ा । तब पण्डितजी शिष्य से कहते हैं; कि देखो भाई तुम्हें याद है जो तुम अपने रसोई घर में रोज़ देखते हो, कि जब धूम होता है तब अवश्यही अग्नि होती है, यह सुनकर वह अपने रसोई घर वाले धूम और अग्नि का स्मरण करता है। और फिर कहता है क्यों पण्डित जी ! यह धूम उसी के सदृश है न ? तब पण्डित जी कहते हैं कि हाँ । अब देखिए, वहां पर उस शिष्य को पहले धूम का प्रत्यक्ष हुआ, पीछे स्मरण हुआ, और फिर सादृश्य प्रत्याभिज्ञान हुअा, इसके बाद वह निश्चय करक कहता है कि जब ऐसा है, तो जहां २ धूम होगा वहां २ अवश्य ही बन्हि होगी; क्योंकि बन्हि के विना धूम हो ही नहीं सकता है । बस, इसी को व्याप्तिज्ञान तथा तर्कप्रमाण कहते हैं, और इसमें उपर्युक्त तीन ज्ञानों की आवश्यकता होती है। इस तर्क प्रमाण के बाद वह शिष्य अनुमान करता है कि इस पर्वत में अग्नि है; क्योंकि यहां पर धूम है । बस, इस में तर्क सहित चार प्रमाण निमित्त होते हैं। श्रागम प्रमाण में, संकेत ग्रहण अर्थात् यह शब्द इस पदार्थ को कहता है इस प्रकार के संकेत का ग्रहण, और उसका स्मरण, यह दोनों ही कारण होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार इन पांचों ही प्रमाणों में दूसरे प्रमाणों की श्रावश्यकता होती है, इसी लिए ही इनको परोक्ष प्रमाण कहते हैं । स्मृति प्रमाण का लक्षण व कारण । . संस्कारोद्धोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ॥३॥
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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