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________________ आप्त-परीक्षा। उपमान प्रमाण कहते हैं, जैसे कि मुख को देखकर "यह मुख चन्द्रमा के समान है" इस ज्ञान में उपमानभूत चन्द्र पदार्थ की सदृशता का ज्ञान उपमेयभूत मुख पदार्थ में होता है। इसी प्रकार जब मीमांसक तीन काल के समस्त पुरुषों को असर्वज्ञ समझकर उनकी सदृशता से अहंत देव में या किसी भी पुरुष विशेष में-सर्वज्ञता का अभाव सिद्ध करना चाहते हैं, तो मीमांसकों को उपमानभूत तीन कालके समस्त पुरुषों का व उपमेयस्वरूप अर्हत देव आदि का प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा । और जब समस्त पुरुषों का प्रत्यक्ष मान लिया, तब सर्वज्ञ के निषेध के स्थान में, सर्वज्ञ की सिद्धि ही हो जायगी । और यदि उपमान व उपमेयरूप समस्त पुरुषों का ज्ञान न मानोगे तो आपका उपमान प्रमाण यहां पर नहीं घटेगा, और जब उपमान प्रमाण ही यहां पर सिद्ध नहीं हो सका, फिर उसको बाधक बताना असंभव है । औरनापत्तिरसर्वज्ञं जगत्साधयितुं क्षमा । क्षीणत्वादन्यथाभावाभावात्तत्तदबाधिका ॥११॥ अर्थापत्ति प्रमाण भी सर्वज्ञ का बाधक, या सर्वज्ञाभाव का साधक, तब ही बन सकता है, जब कि सर्वज्ञ के मानने में, अथवा सर्वज्ञाभाव के न मानने में, कोई संसार में आपत्ति आती हो। जैसे कि किसी ने कहा कि "देवदत्त खूब मोटा
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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