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________________ आप्त-परीक्षा। इति ब्रुवन्नशेषार्थप्रमेयत्वमिहेच्छति ॥ ९२ ॥ चोदनातश्चनिःशेषपदार्थज्ञानसम्भवे । सिद्धमन्तरितार्थानां प्रमेयत्वं समक्षवत् ॥ ५३ ॥ ऐसा संमार में कोई भी पदार्थ नहीं है जो कि प्रमेय अर्थात् किसी न किसी के ज्ञान का विषय न हो क्योंकि मीमांसक स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति व अभाव इन छहों प्रमाणों से सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञान होने का हम निषेध नहीं करते, केवल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से ही सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञान होने का निषेध करते हैं। जब मीमांसकों ने सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान मान लिया और ज्ञान के विषय को ही प्रमेय कहते हैं तब मीमांसकों के कहने से ही सम्पूर्ण पदार्थों में प्रमेयत्व हेतु सिद्ध हो जाता है । दूसरे वेदवाक्य से भी मामांसक समस्त सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों का ज्ञान मानते हैं, इसलिये समस्त पदार्थों में वैदिक ज्ञान से भी घट पट आदिक प्रत्यक्ष पदार्थों की तरह प्रमेयत्व हेतु सिद्ध हो जाता है, और जब समस्त पदार्थों में प्रमेयत्व हेतु सिद्ध हो गया, तब मीमांसक का यह कहना उनके बचन से ही बाधित हो जाता है कि "समस्त पदार्थों में प्रमेयत्व हेतु नहीं रहता"।
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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