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________________ आप्त-परीक्षा। यदिस्वतंत्र मान लिया जाय तो फिर परतन्त्र कोई भी नहीं ठहरेगा । (पैशेषिक) वास्तव में तो समवाय संबंध स्वतंत्र ही पदार्थ है, परन्तु सम्बन्धियों के रहने पर ही समवाय का व्यवहार होता है, इसलिये उपचार से आश्रित मान लेते हैं। और ऐसा मानने में कोई हानि भी नहीं है । (जैन) जिस प्रकार संबंधियों के होने पर ही समवाय का व्यवहार होने से, आपने उस को आश्रित मान लिया है, उसी प्रकार भूतं द्रव्यों के होने पर ही दिशा आदिक व्यापक पदार्थों का व्यवहार होता है, इसलिये दिशा आदिक व्यापक-पदार्थ भी आप को आश्रित ही मानने पड़ेंगे । और इन को आश्रित मानने से आपका जो यह सिद्धान्त है कि-"पण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" अथात् नित्य द्रव्यों को छोड़ कर और जो छः भाव रूप पदाथ हैं वे सब दूसरों के आश्रित रहते हैं, उस का स्वयं आप के मत से ही खण्डन हो जायगा । (वैशेषिक) वास्तव में तो हम समवाय को अनाश्रित ही मानते हैं, फिर आपने समवाय का दृष्टान्त देकर दिशा आदिक पदार्थों का आश्रित कैसे सिद्ध कर दिया, (जैन) यदि आप समवाय को सर्वथा अनाश्रित ही मानते हैं, तो भी समवाय का अपने संबंधियोंके साथ यह नियम नहीं बन सकता, कि यह समवाय इन ही संबंधियों का है, औरों का नहीं है इस के अतिरिक्त समवाय को सर्वथा अनाश्रित मानने
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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