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________________ वैशेषिकमत-विचार । से भी अनवस्था दोष नहीं आता। (जैन) यदि इस प्रकार आप अनंत विशेषण विशेष्य सम्बन्ध मानते हो तो फिर समवाय व संयोग संबंध मानने की भी क्या आवश्यकता है, सब जगह विशेषण विशेष्य संबंध मान कर संयोग व समवाय को भी उस के ही भेद क्यों नहीं मान लेते । (वैशेषिक) समवाय सम्बंध स्वतंत्र एक भिन्नही पदार्थ है वह विशेषण विशेष्य संबंध का भेद कैसे हो सकता है। (जैन) समवाय को सर्वथा एक वोस्वतंत्र पदार्थ मानने में निम्न लिखित बहुत से दोष आते हैं। स्वतन्त्रस्य कथं तावदाश्रितत्वं स्वयं मतं । तस्याश्रितत्ववचने स्वातन्त्र्यं प्रतिहन्यते ॥५९॥ समवायिषु सत्स्वेव समवायस्य वेदनात् । श्राश्रितत्वे दिगादीनां मूर्त्तद्रव्याश्रितिर्न किं ॥६॥ कथं चानाश्रितः सिध्येत्संबंधः सर्वथा कचित् । स्वसंवंधिषु येनातः संभवेनियमस्थितिः ॥६॥ समवाय को यदि आप स्वतंत्र पदार्थ मानते हो तो फिर उस को संबंधियों के आश्रित क्यों मानते हो, और यदि आश्रित ही मानना है तो स्वतंत्र क्यों कहते हो, क्योंकि समवाय को दूसरे के आश्रित रहने पर भी
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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