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________________ १४ आत-परीक्षा। तबोधस्य प्रमाणत्वे, फलाभावः प्रसज्यते । ततःफलावबोधस्यानित्यस्येष्टौ मतक्षतिः॥ २७ ॥ फलत्वे तस्य नित्यत्वं, न स्यान्मानात्समुद्भवात् । . ततोऽनुद्भवने तस्य, फलत्वं प्रतिहन्यते ॥ २८ ॥ - जैसे जैन अनित्य सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानते हैं, और उस के द्वारा अज्ञान की निवृत्ति होना उस प्रमाण का फल (कार्य) मानते हैं, उस ही प्रकार ईश्वर के ज्ञान को प्रमाणस्वरूप नित्य मानने में उसका कोई भी कार्य नहीं बन सकता। और एक ही ज्ञान को प्रमाणस्वरूप व फलस्वरूप मानने में वैशेषिक सिद्धान्त का घात भी होता है क्योंकि ईश्वर के ज्ञान को प्रमाण स्वरूप मानने से. नित्यपना, फल स्वरूप मानने से अनित्यपना सिद्ध होता है। और वैशेषिक मत में ईश्वर के ज्ञान को अनित्य न मान कर केवल नित्य ही माना है। यदि ईश्वर के ज्ञान को केवल फल स्वरूप ही माना जाय तो वह नित्य सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि फल स्वरूप ज्ञान तब ही माना जा सकता है, जब कि प्रमाण से उसकी उत्पत्ति मानी जाय, और जब उसकी उत्पति मान ली गई, तब नित्यपने की शंका करना भी व्यर्थ है। यदि उस
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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