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________________ वैशेषिकमत-विचार । रहने पर ही उपदेश देते हैं और वह अतिशय भी कर्मों का व शरीर का सम्बंध रहने पर ही उन में रहता है। जिस समय वे ही जिनेन्द्र देव समस्त कर्मों का नाश कर के सिद्ध हो जाते हैं, उस समय शरीर व कर्मों का अभाव हो जाने से धर्मोपदेश नहीं दे सकते इस प्रकार जिनेन्द्र का दृष्टान्त मान कर यदि आप ईश्वर को की मानोगे तोतथा धर्मविशेषोऽस्य, योगश्च यदि शाश्वतः । तदेश्वरस्य देहोऽस्तु, योग्यन्तरवदुत्तमः ॥ १७ ॥ ___ उस ईश्वर में भी आपको "जिनेन्द्र में तीर्थ-करत्व सरीखा" कोई योगादि से उत्पन्न होने वाला धर्म अवश्य मानना पड़ेगा, और उस धर्म के मामने से ईश्वर के साथ शरीर भी मानना होगा। और जब शरीर भी मान लिया फिर ईश्वर में और साधारण पुरुषों में भेद ही क्या रहेगा ? इसलिये अन्त में जिनेन्द्र का दृष्टान्त देकर भी आप जब ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं सिद्ध कर सके, तब आप को उसे की नहीं ही मानना चाहिये । (पौराणिक) निग्रहानुग्रही देह, स्वं निर्मायान्यदेहिनां । करोतीश्वर इत्येतन्न परीक्षाक्षम वचः ॥ १८ ॥
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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