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________________ आप्त-परीक्षा। प्रणीतिर्मोक्षमार्गस्य, न विनाऽनादिसिद्धतः । सर्वज्ञादिति तत्सिद्धि, परीक्षासहा, स हि ॥१०॥ (वैशेषिक) ईश्वर यद्यपि सर्वज्ञ है, तो भी कर्मरूपी पर्वत का नाश करने वाला नहीं हो सकता, क्योंकि वह हमेशा कर्म से रहित है, और विना प्रयत्न के ही स्वयं सिद्ध होने से हमेशा कर्म-रहित मानने में भी कोई हानि नहीं है। ईश्वर अनादि-कालीन है, इसलिये विना प्रयत्न सिद्ध मानना ही पड़ेगा और उस के द्वारा सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति विना उस को अनादि माने वन ही नहीं सकती, इसलिये अनादि उसको मानना ही चाहिये, और जब सम्पूर्ण जगत कार्यस्वरूप है, अनादिकाल से बनता बिछुड़ता रहता है, तब इस. सम्पूर्ण चराचर ब्रह्माण्ड का कर्ता एक सर्वशक्तिशाली बुद्धिमान ईश्वर है, इस बात को कौन नहीं मानेगा । (जैन) यह आपका कहना भी ठीक नहीं मालूम देता । क्योंकि जिन २ का आपस में अन्वय व्यतिरेक होता है उन २ काही कार्य कारण भाव माना जाता है। जब ईश्वर व्यापक है और नित्य है तब ईश्वर के साथ में कार्यों का न अन्वय ही बन सकता है और न व्यतिरेक ही। अर्थात् समर्थ कारण के रहते कार्य के नियम से होने को अन्वय कहते हैं और ईश्वर नामक MERE
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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