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________________ ( २ ) के थे। इनका ठीक ठीक समय तो ज्ञात नहीं; परन्तु महामहोपाध्याय प० सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम. ए. बी. एच. डी. ने इन्हें ईस्वीसन् १६०० के * लगभगके विद्वान् बतलाये हैं । श्रीधर्मभूषणजीने इस ग्रन्थमें सुगत, सौगत, बुद्ध, तथागत, मीमांसक, यौग, नैयायिक, भट्ट, प्रभाकर, दिङ्गाग, समन्तभद्र, अकलङ्कदेव, शालिकानाथ, स्याद्वादविद्यापति, भट्टारक माणिक्यनन्दि, भट्टारक कुमारनन्दि, उदयन आदि विविध सम्प्रदायके आचार्योंका और प्रमेयकमलमार्तण्ड, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थभाष्य, आप्तमीमांसाविवरण, न्यायविनिश्चय, प्रमाणनिर्णय, प्रमाणपरीक्षा, परीक्षामुख, न्यायबिन्दु आदि ग्रन्थोंका उल्लेख किया है । अर्थात् इन सब ग्रन्थकर्त्ताओं और ग्रन्थोंके वे पीछे हुए हैं और उपाध्याय श्रीयशोविजय गणिने अपनी तर्कभाषा नामक पुस्तकमें इनका उल्लेख किया है: : “इत्थं वा ज्ञाननिवर्तकत्वेन तर्कस्य प्रामाण्यं धर्मभूषणोक्तं सत्येव, तत्र मिथ्याज्ञानरूपे व्यवच्छेद्ये संगच्छते ।” अर्थात् श्रीयशोविजयजीसे वे पहले हुए हैं । उल्लिखित आचार्यों और यशोविजयजीके समयका विचार करके ही मालूम होता है कि विद्याभूषण महाशयने उक्त समय निश्चित किया है । धर्मभूषण यति संभवतः नन्दिसंघके आचार्य थे। इनका बनाया हुआ प्रमाणविस्तार नामका एक ग्रन्थ और भी है; परन्तु वह हमारे देखने में नहीं आया । इनके सिवा और भी कोई रचना इन्होंने की है या नहीं, यह मालूम न हो सका । इस ग्रन्थके तीन प्रकाश या अध्याय हैं: - प्रमाणसामान्यलक्षण, प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्षज्ञानमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम और नय गर्भित किये हैं । न्यायके पारिभाषिक शब्दोंके लक्षण और उनका विवेचन इसमें बड़ी ही उत्तमता और बारीकीसे किया है । इसलिए प्रारंभके विद्यार्थियोंके लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है। अन्य सिद्धान्तोंका विशेषकरके बौद्धों का खंडन तो इसमें खूब ही किया है । यह विषय जुदा जुदा सिद्धान्तोंका विचार करनेके लिए बहुत कामका है । इस ग्रन्थकी रचना और संस्कृत भी बहुत ही सुन्दर है । प्रकाशक ।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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