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________________ शानको, अप्रमाण मानते हो तो धारावाहिककी तरह जिस क्षानने पहले घटादिक पदार्थको विषय किया और फिर कुछ का. लके लिये किसी दूसरे काममें लगजानेके कारण वह शान छूट गया हो तो उसी घटादिक पदार्थका दूसरी बार होनेवाला जो शान उसको भी, अप्रमाण कहना पड़ेगा। (उत्तर) यह शङ्का ठीक नहीं है क्योंकि जिस पदार्थको एकबार जान भी लिया हो परंतु उसके पीछे यदि मनोयोग दूसरी तरफ लगजाय और वह प्रथम विषय मनोगत न रहे तो वह प्रथम विषय अज्ञातसा ही हो जाता है । ऐसा ही श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामीने परीक्षामुखमें कहा है कि "दृष्टोपि समारोपात्तादृक्" इति । अर्थात् जिसको एकबार जान भी लिया परंतु उसके अनन्तर समारोप होनेपर वह, अदृष्टसा ही है । इसलिये जिसके बीचमें व्यासङ्ग, आगया हो उसके दूसरे बार होनेवाले शानको भी अप्रमाण नहीं कहसकते। धारावाहिक ज्ञानके बीचमें किसी प्रकारका व्यवधान नहीं पड़ता किन्तु उत्तरोत्तर पूर्वविषयक ही ज्ञान होता चला जाता है इसलिये यह धारावाहिक ज्ञान तथा व्यासंग पड़नेके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला ज्ञान, ये दोनों एकसे नहीं हो सकते । (शङ्का) यद्यपि अचेतन होनेसे इन्द्रिय और गृहीतग्राही होनेसे धारावाहिक बुद्धि, प्रमाण नहीं है अतएव इनमें प्रमाणका लक्षण घटित न होनेसे प्रमाणके लक्षणमें, अतिव्याप्ति नहीं आसकती, परन्तु निर्विकल्पक, और सत्तामात्रको (महासत्ता) वि. षय करनेवाले दर्शनमें अतिव्याप्ति, अवश्य आजायगी, क्योंकि चैतन्यकी पर्याय होनेसे वह, अचेतन भी नहीं है, और सामान्यावलोकनरूप दर्शनके अनन्तर ही विशेषावलोकन होता है, अतः प्रमितिके प्रति करण भी है, अतः वही प्रमाण है। परन्तु आपने (जैनोंने) उसको प्रमाण नहीं माना है इसलिये, आपके इस प्रमाणलक्षणकी दर्शनमें अतिव्याप्ति आना संभव है।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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