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________________ १५ 1 प्रमाण नहीं माना है । और आपका किया हुआ लक्षण इसमें भी घटित होता है । इसलिये, अतिव्याप्ति, अवश्य सम्भव है । (उत्तर) किसी भी एक विषयका अज्ञान दूर करनेकेलिये जो उस विषयका प्रथम ज्ञान उत्पन्न होता है उसके अनन्तर फिर भी बार २ जो उसी विषयका ज्ञान हो उसको धारावाहिक कहते हैं । जैसे पहले घटविषयक जो, अज्ञान था उसको दूर करने के लिये घटका ज्ञान हो चुकनेपर फिर जो "यह घट है यह घट है" ऐसा ज्ञान कई ज्ञानतक होता है उसको धारावाहिक बुद्धि कहते हैं । इसमें भी हमारे किये हुए लक्षणकी अतिव्याप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह भी प्रमिति के प्रति साधकतम नहीं है। कारण यह कि प्रमिति तो प्रथम ज्ञानसे ही सिद्ध हो चुकी, फिर पीछे होनेवाले धारावाहिक ज्ञानने क्या किया ? जिसको पहले ज्ञानने विषय किया है धारावाहिक केवल उसीको बार २ विषय करता है, अर्थात् गृहीतग्राही होनेसे उसमें, अतिव्याप्ति नहीं आसकती । अतएव (गृहीतग्राही होनेसे ) यह प्रमाण भी नहीं है । ननु घटे दृष्टे पुनरन्यव्यासङ्गे पश्चाद् घट एव दृष्टे पश्चातमं ज्ञानमप्रमाणत्वं प्राप्नोति धारावाहिकवदिति चेन्न दृष्टस्यापि मध्ये समारोपे सत्यदृष्टत्वात् । तदुक्तं " दृष्टोपि समारोपात्तादृक्" इति । एतेन निर्विकल्प के सत्तालोचनरूपे दर्शनेप्यतिव्याप्तिः परिहृता । तस्याव्यवसायरूपत्वेन प्रमितिं प्रति करणत्वाभावात् । निराकारस्य दर्शनस्य ज्ञानत्वाभावाच्च निराकारं दर्शनं साकारं ज्ञानमिति प्रवचनात् । तस्मात् प्रमाणस्य सम्यग्ज्ञानमिति लक्षणं नातिव्याप्तं नाप्यव्याप्तं लक्ष्ययोः प्रत्यक्षपरोक्षयोर्व्याप्यवृत्तेः । नाप्यसम्भवि लक्ष्यवृत्तेरबाधितत्वात् । ( शङ्का ) यदि गृहीतग्राही - जानेहुए पदार्थको जाननेवाले
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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