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________________ ७६ सनातनजैनग्रंथमालायां हो जायगी जैसा कि बौद्ध-समानजातीय दूसरे प्रमाणकी व्यावृत्तिसे अप्रमाण स्वीकार करते हैं। एवं सर्वथा अफलकी कल्पनासे फल भी संसारमें कोई पदार्थ है यह बात ही सिद्ध न हो सकैगी, इसलिये मानो कि प्रमाण और फलका भेद वास्तव भेद है। यहां पर भी सर्वथा भेद नहिं कह सकते क्योंकि यदि सर्वथा भेद मान लिया जायगा तो जैसा दूसरे आत्माके प्रमाणका फल हमसे भिन्न है उसीप्रकार हमारी आत्माके प्रमाणका फल भी हमसे भिन्न पड़ जायगा और ऐसी स्थितिमें वह फल हमारे ही प्रमाणका है यह बात नहिं बन सकती । कहोगे कि--यद्यपि प्रमाण और फल भिन्न हैं तथापि समवायसंबंधसे जिस आत्मामें प्रमाण रहेगा फल भी समवायसंबंधसे उसीमें रहेगा सो भी ठीक नहीं, क्योंकि समवाय माननेपर भी अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् समवायको एक नित्य और व्यापक माना गया है इस लिये इसी आत्मामें प्रमाण व फल समवाय संबंधसे रहता है इस दूषणका निवटेरा नहिं हो सकता ॥६६-७२॥ बंगला-प्रमाण हइते फल भिन्न वा अभिन्न इहा बला फलाभास । यदि प्रमाण हइते फलेर सर्वथा अभेद मानिया लओया जाय तबे उहाओ प्रमाणइ हइया पडिल, सुतरां फल बलिया बला असंगत । ए स्थले बौद्धेर मत यदि बलि ये अभेद हइलेओ अफलेर. व्यावृत्तिरूप फलेर कल्पना हइबे, ताहा ओ ठिक नहे, केनना अफल व्यावृत्ति द्वारा फलेर कल्पनार
SR No.022437
Book TitlePariksha Mukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year1916
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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