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________________ सनातन जैनग्रंथमालायां अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५९ ॥ हिंदी -- विधिरूप साध्य रहनेपर अविरुद्धोपलब्धिके छह भेद हैं - व्याप्योपलब्धि कार्योपलब्धि कारणोपलब्धि पूर्वच रोपलब्धि उत्तरचरोपलब्धि और सहचरोपलब्धि ।। १९ ॥ बंगला - विधिरूप साध्य थाकिले अविरुद्धोपलब्धि छय भेदे विभक्त । यथा व्याप्योपलब्धि, कार्योपलब्धि, कारणोपलब्धि, पूर्वचरोपलब्धि, उत्तरचरोपलब्धि, एवं सहचरोपलब्धि ॥५९॥ २४ रसांदेकसामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणांतरावैकल्ये 1180 11 हिंदी - रसका सजातीय रस, और रूपका सजातीय रूप है । तथा रसका विजातीय रूप और रूपका विजातीय रस है । एवं रूप और रस इन दोनों का सहचरभाव है - विना रसके रूप नहिं रह सकता और विनारूपके रस नहीं, इसलिये रसकी उत्पत्तिमें जैसा प्राक्तन रस कारण पडता है वैसा रूप भी कारण पडता है तो जिससमय हम अंधेरी रात्रिमें किसी फलके रसका आस्वादन कर रहे हैं उससमय उसकी सामग्रीका अनुमान होता है अर्थात् इस रसको उत्पन्न करनेवाली कोई न कोई सामग्री ( कारण ) थी और उस सामग्री के अनुमानसे रूपका अनुमान होता है अर्थात् - प्राक्तन रूप जैसे सजातीयरूपको उत्पन्न करता है वैसे ही विजातीय रसको भी उत्पन्न करता है । जब ऐसी स्थिति है। तव रससे समान सामग्रीका अनुमान और समानसामग्रीके अनु
SR No.022437
Book TitlePariksha Mukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year1916
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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