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________________ ( ६५ ) [ तृतीय परिच्छेद विरुद्ध क्रोध आदि का अनुपम है और अनुपशम का कार्य वदनविकार आदि पाया जाता है, अत: यह विरुद्धकार्योपलब्धि का उदाहरण हुआ । विरुद्ध कारणोपलब्धि विरुद्ध कारणोलपब्धिर्यथा - नास्य महर्षेरसत्यं समस्ति, रागद्वेष कालुष्याऽकलङ्कितज्ञानसम्पन्नत्वात् ॥ ८६ ॥ अर्थ -- इस महर्षि में असत्य नहीं है, क्योंकि वह राग-द्वेष रूपी कलंक से रहित ज्ञान वाले हैं । विवेचन – यहाँ प्रतिषेध्य असत्य है, उससे विरुद्ध सत्य है और सत्य के कारण राग-द्वेष रहिन ज्ञान की उपलब्धि है; अतः यह विरुद्ध काग्णोपलब्धि का उदाहरण है । विरुद्ध पूर्व चरोपलब्धि विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धिर्यथा नोद्गमिष्यति मुहूर्त्तान्ते पुष्यतारा, रोहिण्युद्गमात् ॥ ६० ॥ अर्थ - एक मुहूर्त्त पश्चात् पुष्य नक्षत्र का उदय नहीं होगा, क्योंकि रोहिणी नक्षत्र का उदय है । विवेचन – यहाँ पुष्यतास का उदय प्रतिषेध्य है, उससे विरुद्ध मृगशीर्ष नक्षत्र का उदय है और उसके पूर्वचर रोहिणी नक्षत्र के उदय की उपलब्धि है । अतः यह विरुद्ध पूर्वचरोलब्धि का उदाहरण है ।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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