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________________ (६३) [ प्रथम परिच्छेद अर्थ - इस श्रम में रूप विशेष है, क्योंकि आस्वाद्यमान रस विशेष है; यह अविरुद्ध सहचरोपलब्धि का उदाहरण है | ( यहाँ साध्य-रूप-से अविरुद्ध सहचर - रस की उपलब्धि है ) विरुदोपलब्धि के भेद विरुद्धोपलब्धिस्तु प्रतिषेधप्रतिपत्तौ सप्तधा || ८३॥ अर्ध - निषेध सिद्ध करनेवाली विरुद्धोपलब्धि सात प्रकार की है। स्वभाव विरुद्धोपलब्धि तत्राद्या स्वभावविरुद्धोपलब्धिः ॥ ८४ ॥ यथा नास्त्येव सर्वथैकान्तोऽनेकान्तस्योपलम्भात् ॥ ८५॥ - विरुद्धोपब्धि का पहला भेद स्वभावविरुद्धोपब्धि है | जैसे - सर्वथा एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेकान्त की उपलब्धि होती है ।। - विवेचन – यहाँ प्रतिषेध्य है— सर्वथा एकान्त । उससे विरुद्ध अनेकान्तरूप स्वभाव की उपलब्धि है । अतएव यह निषेधसाधक साध्यविरुद्ध स्वभावोपलब्धि हेतु है । विरुदोपलब्धि के भेद प्रतिषेध्यविरुद्ध व्याप्तादीनामुपलब्धयः षट् ॥ ८६ ॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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