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________________ (३५) [प्रथम परिच्छेद (४) असत्प्रतिपक्षता-हेतु का विरोधी समान बल वाला दूसरा हेतु न हो। (५) अबाधितविषयता हेतु का साध्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित न हो। वास्तव में बौद्धों और नैयायिकों का हेतु का यह लक्षण ठीक नहीं है । इसके दो कारण हैं-प्रथम, यह कि इन सब के मौजूद रहने पर भी कोई-कोई हेतु सही नहीं होता; दूसरे, कभी-कभी इनके न होने पर भी हेतु सही होता है। इस प्रकार हेतु के इन दोनों लक्षणों में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोनों दोष विद्यमान हैं। साध्य का स्वरूप अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम् ॥१४॥ शंकितविपरीतानध्यवसितवस्तूनां साध्यताप्रतिपत्त्यर्थमप्रतीतवचनम् ॥१५॥ प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसज्यतामित्यनिराकृतग्रहणम् ॥१६॥ अनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽभीप्सितपदोपादानम् ॥१७॥ __ अर्थ-जो प्रतिवादी को स्वीकृत न हो, जो प्रत्यक्ष आदि किसी प्रमाण से बाधित न हो और जो वादी को मान्य हो, वह साध्य होता है। जिसमें शंका हो, जिसे उलटा मान लिया हो अथवा जिसमें
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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