SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३१ ) [ प्रथम परिच्छेद अर्थ- प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होने वाला, तिर्यक् सामान्य अथवा ऊर्ध्वता सामान्य को जानने वाला, जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है | जैसे - यह गाय उस गाय के समान है, गवय ( रोझ) गाय के समान होता है, यह वही जिनदत्त है; आदि || विवेचन – किसी के मुँह से हमने सुना था कि गवय, गाय के समान होता है । कुछ दिन बाद हमें गवय दिखाई दिया । उसे देखते ही हमें 'गवय गाय के सदृश होता है,' इस वाक्य का स्मरण हुआ। इस अवस्था में गवय का प्रत्यक्ष होरहा है और पहले सुने हुए वाक्य का स्मरण होरहा है । इन दोनों ज्ञानों के मेल से जो ज्ञान होता tant प्रत्यभिज्ञान है । कल जिनदत्त को देखा था, आज वह फिर सामने आया । तब इस समय उसका प्रत्यक्ष होता है और कल देखने का स्मरण होता है । बस, इन प्रत्यक्ष और स्मरण के मिलने से 'यह वही जिनदत्त है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है । इन दो उदाहरणों को ध्यान से देखो तो ज्ञात होगा कि एक में सदृशता प्रतीत होती है और दूसरे में एकता । सदृशता को जानने चाला सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहलाता है, एकता को जानने वाला एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार 'यह उससे विलक्षण है', 'यह -उससे बड़ा या छोटा है' इत्यादि अनेक प्रकार के प्रत्यभिज्ञान होते हैं। नैयायिक लोग सादृश्य को जानने वाला उपमान नामक प्रमाण अलग मानते हैं, यह ठीक नहीं है । ऐसा मानने पर तो एकता, विलक्षणता, आदि को जानने वाले प्रमाण भी अलग-अलग मानने
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy