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________________ .. (३०) [प्रथम परिच्छेद तत्तीर्थकरविम्बमिति यथा ॥४॥ अर्थ-संस्कार (धारणा ) के जागृत होने से उत्पन्न होने वाला, पहले जाने हुए पदार्थ को जानने वाला, 'वह' इस श्राकार वाला, ज्ञान स्मरण है । जैसे वह तीर्थङ्कर का बिम्ब । - विवेचन-यहाँ और आगे ज्ञान का कारण, विषय तथा आकार इन तीन बातों का उल्लेख करके उसका स्वरूप बताया गया है। स्मरण, धारणा रूप संस्कार के जागृत होने पर उत्पन्न होता है, प्रत्यक्ष अनुमान, आगम आदि किसी भी प्रमाण से पहले जाने हुए पदार्थ को ही जानता है और 'वह' (तत्) शब्द से उसका उल्लेख किया जा सकता है । जैसे—'वह ( पहले देखी हुई ) तीर्थङ्कर की प्रतिमा !' कुछ लोग स्मरण को प्रमाण नहीं मानते, यह ठीक नहीं है। स्मरण को प्रमाण माने बिना अनुमान प्रमाण नहीं बनेगा, क्योंकि वह व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है। लेन देन आदि लौकिक व्यवहार भी स्मरण की प्रमाणता के विना बिगड़ जाएंगे। . प्रत्यभिज्ञान का लक्षण अनुभवस्मृतिहेतुकं, तिर्यगूर्खतासामान्यादिगोचरं, संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् ॥५॥ यथा-तजातीय एवायं गोपिएडः, गोस दृशो गवयः, स एवायं जिनदत्त इत्यादि ॥६॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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