SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . भारतीय दर्शन-शास्त्रों में जैन दर्शन का स्थान. अति महत्व का है और उसका प्रधान कारण उसकी मौलिकता, व्यापकता और विशदता है। जगत् के समस्त झगड़ों और झंझटों का निपटाग करने के लिये जैन-दर्शन ने जो अपूर्व चीज़ जगत् की सेवा में समर्पित की है वह स्याद्वाद है और यह जैनदर्शन की मौलिकता है। स्याद्वाद ही जैन नीति का मूलमन्त्र है और उसका निर्माण प्रमाण और नय, इन दो तत्त्वों की भित्ति पर ही हुआ है क्योंकि जैन दर्शन के ये ही प्राणभूततत्त्व हैं। ग्रन्थ का महत्त्व ... न्याय-शास्त्र के विशाल मन्दिर में प्रवेश करने के लिये प्रखर तार्किक श्री देवसूरि ने श्री माणिक्यनन्दि के 'परीक्षा मुख' ग्रंथ की शैली पर प्रस्तुत पुस्तक की रचना करके प्रथम सोपान बना देने का काम किया है। ___'प्रमाणनयैरधिगमः'—यह बात अनुभवगम्य होने पर भी प्रमाण और नय क्या है ? उसके स्वरूप-संख्या-विषय-फल आदि क्या हैं ? उसका विशेष परिचय प्राप्त करना अनिवार्य है। इसलिये प्रस्तुत पुस्तक में प्रमाण और नय इन दो तत्त्वों पर ही सुन्दर ढंग से काफी प्रकाश डाला गया है। यही कारण है कि प्रस्तुत पुस्तक संक्षिप्त होने पर भी सुन्दर और सारगर्भित है। न्याय-शास्त्र के सागर को प्रस्तुत पुस्तक रूपी गागर में भर देने का जो कौशल सूरिजी ने बताया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है । जैन न्याय को अच्छी तरह समझने के लिये इसे कुञ्जी कहा जा सकता है। ..
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy