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________________ प्रमाण-नय-तत्वालोक ] (२८) ( २ ) अर्हन्त निर्दोष हैं, क्योंकि उनके वचन प्रमाण से अविरुद्ध हैं । जो निर्दोष नहीं होते उनके वचन प्रमाण से श्रविरुद्ध नहीं होते, जैसे हम सब लोग । ( व्यति० हेतु ) (३) अन्त के वचन प्रमाण से अविरुद्ध हैं, क्योंकि उनका मत प्रमाण से खण्डित नहीं होता । जिसका मत प्रमाण से खण्डित नहीं होता वह प्रमाण से अविरुद्ध वचन वाला होता है जैसे रोग के विषय में कुशल वैद्य । उपर्युक्त हेतुओं से यह सिद्ध हुआ कि अर्हन्त भगवान् ही सर्वज्ञ हैं, अन्य कपिल, सुगत आदि नहीं । साथ ही जो लोग जगत्कर्त्ता ईश्वर को ही सर्वज्ञ मानते हैं उनका भी खण्डन होगया । कवलाहार और केवलज्ञान न च कवलाहारवत्वेन तस्यासर्वज्ञत्वं कवलाहार, सर्वज्ञत्वयोरविरोधात् ||२७| - अर्थ — अर्हन्त भगवान् कवलाहारी होने से सर्वज्ञ नहीं हैं, क्योंकि कवलाहार और सर्वज्ञता में विरोध नहीं है । विवेचन – दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि कवलाहार करने वाला सर्वज्ञ नहीं हो सकता । इस मान्यता का विरोध करते हुए यहाँ दोनों का विरोध बताया गया है। दोनों में विरोध न होने से कवलाहार करने पर भी अर्हन्त सर्वज्ञ हो सकते हैं ।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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