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________________ (२७) [प्रथम परिच्छेद अर्हन्त ही सर्वज्ञ हैं तद्वानहनिर्दोषत्वात् ॥२४॥ निर्दोषोऽसौ प्रमाणाविरोधिवाक्त्वात् ॥२५॥ तदिष्टस्य प्रमाणेनाबाध्यमानत्वात् , तद्वाचस्तेनाविरोधसिद्धिः॥२६॥ ___ अर्थ-अर्हन्त भगवान ही केवलज्ञानी (सर्वज्ञ ) हैं क्योंकि वे निर्दोष हैं। अर्हन्त भगवान निर्दोष हैं, क्योंकि उनके वचन प्रमाण से विरुद्ध नहीं हैं। ___ अर्हन्त भगवान के वचन प्रमाण से विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि उनका (स्याद्वाद ) मत प्रमाण से खण्डित नहीं होता। विवेचन-ऊपर के सूत्र में केवलज्ञान का विधान करके यहाँ अर्हन्त भगवान् को ही केवलज्ञानी सिद्ध किया गया है । अर्हन्त भगवान् को केवली सिद्ध करने के लिए निर्दोषत्व हेतु दिया है । निर्दोषत्व हेतु को सिद्ध करने के लिए 'प्रमाणाविरोधि वचन' हेतु दिया है और इस हेतु को सिद्ध करने के लिए 'अर्हन्त भगवान् के मत की अबाधितता' हेतु दिया गया है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिये:-- (१) अर्हन्त ही सर्वज्ञ हैं, क्योंकि वे निर्दोष हैं, जो सर्वज्ञ नहीं होता वह निर्दोष नहीं होता, जैसे हम सब लोग । ( व्यतिरेकी हेतु )
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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