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________________ प्रमाण-नय तत्त्वालोक] (२०) हो जाता है-'यह दक्षिणी होना चाहिये' इस प्रकार ज्ञान एक ओर को मुका रहता है । अतएव संशय और ईहा दोनों एक नहीं हैं। अवग्रहादि का भेदाभेद कथश्चिदभेदेऽपि परिणामविशेषादेषां व्यपदेशभेदः ॥१२॥ अर्थ-दर्शन, अवग्रह आदि में कथंचित् अभेद होने पर भी परिणाम के भेद से इनके भिन्न २ नाम दिए गए हैं। विवेचन-जीव का लक्षण उपयोग है । उसी उपयोग की भिन्न २ अवस्थाएँ होती हैं और वही अवस्थाएँ यहाँ दर्शन, अवग्रह ईहा आदि भिन्न २ नामों से बताई गई हैं। इन अवस्थाओं से उपयोग की उत्पत्ति और उत्तरोत्तर विकास का क्रम जाना जाता है। जैसे प्रत्येक मनुष्य शिशु, बालक, कुमार, युवक, प्रौढ़ आदि अवस्थाओं को क्रम-पूर्वक ही प्राप्त करता है उसी प्रकार उपयोग भी दर्शन, अवग्रह आदि अवस्थाओं को क्रम से पार करता हुआ ही धारणा की अवस्था प्राप्त करता है । शिशु आदि अवस्थाओं में मनुष्य एक ही है फिर भी परिणमन के भेद से अवस्थाएँ भिन्न २ कहलाती हैं उसी प्रकार उपयोग एक होने पर भी परिणमन (विकास) की दृष्टि से अवग्रह आदि भिन्न २ कहलाते हैं । जैन परिभाषा में इसी को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अभेद और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद कहते हैं। अवग्रह श्रादि की भिन्नता असामस्त्येनाप्युत्पद्यमानत्वेनाऽसंकीर्णस्वभावतयाऽनुभूयमानत्वात्, अपूर्वापूर्ववस्तुपर्यायप्रकाशकत्वात्, क्रमभावित्वाचैते व्यतिरिच्यन्ते ॥१३॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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