SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ सातवाँ परिच्छेद अर्थ- द्रव्यत्व आदि अपरसामान्यों को स्वीकार करने वाला और उनके भेदों का निषेध करने वाला अभिप्राय अपरसंग्रह - नयाभास है । (१४१) जैसे -- द्रव्यत्व ही वास्तविक है, उससे भिन्न धर्म आदि द्रव्य उपलब्ध नहीं होते ।। विवेचन - द्रव्यत्व आदि सामान्यों को अपर संग्रहनय स्वीकार करता है पर वह उनके भेदों का धर्म आदि द्रव्यों का निषेध नहीं करता; यह अपरसंग्रह नयाभास अपर सामान्य के भेदों का निषेध करता है, इसलिए नयाभास है । व्यवहारनय संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः ॥ २३ ॥ यथा यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वा ॥ २४ ॥ अर्थ - संग्रह नय के द्वारा जाने हुए सामान्य रूप पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करने वाला नय व्यवहार नय कहलाता है । जैसे- जो सत् होता है वह या तो द्रव्य होता है या पर्याय ।। विवेचन – संग्रहनय द्वारा विषय किये हुए सामान्य में व्यवहार नय भेद करता है । सामान्य से लोक व्यवहार नहीं होता । लोकव्यवहार के लिये विशेषों की आवश्यकता होती है । 'गोत्व' सामान्य दुहा नहीं जा सकता और न 'अश्वत्व' सामान्य पर सवारी की जा सकती है | दुहने के लिये गाय - विशेष की आवश्यकता है और सवारी के लिए श्व-विशेष की अपेक्षा होती है । अतः लोक व्यवहार के अनु
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy