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________________ (५) [प्रथम परिच्छेद सन्निकर्ष पर-पदार्थ का निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वह अपना ( स्व का) निश्चय नहीं कर सकता; जो अपना निश्चय नहीं कर सकता वह पर-पदार्थ का निश्चय नहीं कर सकता; जैसे घट । प्रमाण निश्चयात्मक है तद् व्यवसायस्वभावं समारोपपरिपन्थित्वात् प्रमाणत्वाद् वा ॥६॥ अर्थ-प्रमाण व्यवसाय रूप है, क्योंकि वह समारोप का विरोधी है अथवा प्रमाण व्यवसाय रूप है, क्योंकि वह प्रमाण है। विवेचन-प्रमाण का लक्षण बताते समय उसे निश्चयात्मक कहा था; पर बौद्ध दर्शन में निर्विकल्प ज्ञान भी प्रमाण माना जाता है। जैनदर्शन में जिसे दर्शनोपयोग कहते हैं और जिसमें सिर्फ सामान्य का बोध होता है वही बौद्धों का निर्विकल्प ज्ञान है। निर्विकल्प ज्ञान की प्रमाणता का निषेध करके यहां यह बताया गया है कि प्रमाण निश्चयात्मक है। निर्विकल्प ज्ञान में 'यह घट है, यह पट है', इत्यादि विशेषों का ज्ञान नहीं होता, इसी कारण यह ज्ञान प्रमाण नहीं है । यहाँ प्रमाण को व्यवसाय-स्वभाव कहा है, इससे यह भी फलित होता है कि संशय-ज्ञान, विपरीत-ज्ञान और अनध्यवसाय-ज्ञान भी प्रमाण नहीं हैं। सूत्र का भाव यह है-प्रमाण व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) है, क्योंकि वह समारोप-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय-का विरोधी है; जो व्यवसायात्मक नहीं होता वह समारोप का विरोधी नहीं होता; जैसे घट । तथा
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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