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________________ (१२३) [षष्ठ परिच्छेद अर्थ-पूर्वोक्त अनुमान में कलश का उदाहरण देना उभयविकल है। विवेचन-कलश पुरुषकृत और मूर्त है अतः उसमें अपौरुषेयत्व साध्य और अमूर्त्तत्व हेतु दोनों नहीं हैं। (१) संदिग्धसाभ्यधर्म दृष्टान्ताभास रागादिमानयं वक्तृत्वात् , देवदत्तवदिति संदिग्धसाध्यधर्मा ॥ ६३ ॥ अर्थ-यह पुरुष राग आदि वाला है, क्योंकि वक्ता है, जैसे देवदत्त । यहाँ देवदत्त दृष्टान्त संदिग्धसाध्यधर्म है। विवेचन-जिम दृष्टान्न में साध्य का रहना संदिग्ध हो वह दृष्टान्त संदिग्धसाध्यधर्म कहलाता है। देवदत्त में राग आदिक साध्य के रहने में संदेह है अतः देवदत्त दृष्टान्त संदिग्धसाध्यधर्म है। (५) संदिग्धसाधनधर्म दृष्टान्ताभास मरणधर्माऽयं रागादिमत्वान्मैत्रवदिति संदिग्धसाधनधर्मा ॥ ६४॥ . अर्थ-'यह पुरुष मरणशील है' क्योंकि रागादिवाला है, जैसे मैत्र । यहाँ मैत्र दृष्टान्त संदिग्धसाधनधर्म है। विवेचन–मैत्र नामक पुरुष में रागादित्व हेतु के रहने में सन्देह है, अनः मैत्र उदाहरण संदिग्धसाधनधर्मदृष्टान्ताभास है।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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