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________________ (१०६) ... [ षष्ठ परिच्छेद - जैसे सन्निकर्ष, स्व को न जानने वाला ज्ञान, पर को न जानने वाला ज्ञान, दर्शन, विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय ॥ विवेचन-प्रमाण के स्वरूप से स्वरूपाभास की तुलना करने से विदित होगा कि स्वरूपाभान, स्वरूप से सर्वथा विपरीत है। __ अज्ञान रूप सन्निकर्ष को प्रमाण का स्वरूप कहना, स्व को अथवा पर को न जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहना, अनिश्चयात्मक ज्ञान अथवा दर्शन को प्रमाण कहना या समारोप को प्रमाण कहना, प्रमाण का स्वरूपाभास है। स्वरूपाभास होने का कारण तेभ्यः स्व-परव्यवसायस्यानुपपत्तेः ॥ २६ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त ज्ञान आदि से स्व-पर का व्यवसाय नहीं झे सकता ( इसलिये वे स्वरूपाभास हैं)। विवेचन-प्रमाण का स्वरूप बताते समय कहा गया था कि जो ज्ञान स्व और पर का यथार्थ निश्चय करने वाला हो वही प्रमाण हो सकता है; पर स्वरूपाभासों की गणना करते समय जो ज्ञान बताये हैं उनसे स्व-पर का यथार्थ निश्चय नहीं होता, अतएव वे स्वरूपाभास हैं । इन ज्ञानों में कोई. 'स्व' का निश्चायक नहीं, कोई पर का निश्चायक नहीं, कोई स्व-पर दोनों का निश्चायक नहीं है और निर्विकल्पक, दर्शन तथा समारोप यथार्थ निश्चायक नहीं हैं। सन्निकर्ष ज्ञान रूप नहीं है । अतः इनमें प्रमाण का स्वरूप घटित नहीं होता। सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिव यदाभासते तत्तदाभासम्॥२७
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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