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________________ २२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विभक्ति अन्तमैं है । तहां ज्ञानका विषयभूत वस्तु है सो तौ कर्म कहिये है, जानैं कर्मका स्वरूप ऐसा है जो क्रियाकै व्याप्य होय-प्राप्त होने योग्य होय तथा रचने योग्य होय तथा विकार करने योग्य होय सो इहां ज्ञप्तिक्रियाकै व्याप्य ज्ञानका विषय वस्तु ही है । बहुरि कर्मवत् कह्या सो यह उपमा अलंकाररूप दृष्टान्तका वचन भया । बहुरि कर्ता आत्मा है । बहुरि करण प्रमाणरूप ज्ञान है । बहुरि क्रिया प्रमिति है । तिनिका द्वंद्व समास करि प्रतीति शब्दः षष्ठीतत्पुरुष समास करना, ताकै अंतविर्षे हेतु अर्थ मैं पंचमी विभक्ति करनी । इहां वृत्तिमैं 'का' ऐसी पंचमीकी संज्ञा है सो जैनेन्द्रव्याकरण अपेक्षा है । ऐसैं पहले सूत्र कह्या तामैं अनुभवका उल्लेख है ता विर्षे यथा अनुक्रम संबंध करणां तब ऐसा अर्थ होय है-जो ज्ञान जैसैं अपनां विषयभूत वस्तु जो कर्म ताकी प्रतीति करै है तैसैं ही कर्ता आत्माकी तथा करणरूप आपकी तथा क्रियाकी प्रतीति करै है यातैं जैसैं घटकू मैं आप करि जानूं हूं ऐसी प्रतीति करै है तैसैं ही कर्ता करण क्रिया विषै भी मैं इनिकू जानूं हूं ऐसी प्रतीति करै है यामैं बाधा नाहीं है, अनुभवसिद्ध है । इहां ऐसा जाननां जो एक ही ज्ञानमैं कर्ता आदि अनेक कारक अवस्था भेद विवक्षा कार संभवै है तातें जैनमत स्याद्वाद है तामैं अपेक्षातै विरोध नाहीं है, सर्वथा एकांतीनिकै विरोध आवै है ॥ ९॥ आगैं कोई कहै जो यह कर्ता आदिकी प्रतीति कही सो तौ शब्दका उच्चारमात्र ही है वस्तुका स्वरूपका बलतें तौ नाहीं उपजी, कहने मात्र है, वस्तुस्वरूप ऐसें नाहीं, ऐसा प्रश्न होतें सूत्र कहैं हैं;-- शब्दांनुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ याका अर्थ-यह कर्ता आदिकी प्रतीति ज्ञाने कै होय है सो शब्दका उच्चार विना भी होय है ऐसैं आपका अनुभव आपकै है जैसैं
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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