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________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ-स्व कहिये आप आत्मा अपूर्वार्थ कहिये पहिले जाकी प्रमाणता न भई ऐसा अन्य वस्तु इनि दोऊनिवि व्यवसायात्मक कहिये व्यापारकरि निश्चय करने स्वरूप जो ज्ञान सो प्रमाण है । इहां प्रमाण शब्दकी निरुक्ति ऐसी;-'प्र' कहिये प्रकर्षरूप संशय, विपर्यय, अनध्यवसायकरि रहित होय कार 'मीयते ' कहिये वस्तुस्वरूपकू जानिये जा करि सो प्रमाण है, ऐसे करणसाधनरूप निरुक्ति है, सो ऐसा ज्ञान विशेषणकरि तौ जे अज्ञानरूप संनिकर्ष आदिकू प्रमाण मानें है तिनिका निराकरण भया । तहां लघु नैयायिकमतवाले तौ इंद्रियकै अर पदार्थकै संबंध होना ऐसा जो सन्निकर्ष ताकू प्रमाण मानै है, अर बड़े पुराणे नैयायिक ते कर्ता कर्म आदि कारकनिका सकलपणांकू प्रमाण मानें हैं । बहुरि सांख्यमतवाले इन्द्रियनिकी प्रवृत्तिहीकू प्रमाण मानें हैं । बहुरि प्राभाकर जे मीमांसकमतके भेदवाले अज्ञानरूप जो ज्ञाता का व्यापार ताकू प्रमाण मानें हैं तिनिका निषेध ज्ञान कहनेंतें भया। बहुरि बौद्धमती प्रमाण ज्ञानहीकू कहैं हैं परन्तु प्रमाणका भेद जो प्रत्यक्ष ताके च्यारि भेद करें हैं । स्वसंवेदनप्रत्यक्ष १ इन्द्रियप्रत्यक्ष २ मानसप्रत्यक्ष ३ योगिप्रत्यक्ष ४ ऐसैं यहू च्यारूंही प्रकारका प्रत्यक्ष निर्विकल्प-व्यापार करि रहित मानैं हैं तिनिके निराकरणकै अर्थि व्यवसायपदका ग्रहण है। जो व्यापाररूप सविकल्प होय-निश्चय करनेवाला होय सो प्रमाण है । बहुरि अर्थपदका ग्रहणते जे बाह्य पदार्थका लोप करनेवाले विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धमती तथा ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तमती तथा दीखती वस्तुका लोप करनेवाले शून्यएकान्तवादो तिनिका निराकरण है। बौद्धमतीके च्यारि भेद हैं तहां माध्यमिक तौ सर्वशून्य मानै हैं, बहुरि योगाचार बाह्यपदार्थकू शून्य मानें है ज्ञान• अद्वैत मानैं हैं, बहुरि सौत्रांतिक अनुमानका विषय अनुमेयकू अवस्तु मानें हैं, बहुरि वैभाषिकभी सर्व वस्तुकू शून्य
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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