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________________ -२२२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितप्रजा सुखी तिनिकै परताप, काहूक न वृथा संताप । अपने अपने मत सब चलैं, जैनधर्महू अधिको भलैं॥३॥ तामैं तेरहपंथ सुपंथ, शैली बडी गुनी गुनग्रंथ । तामैं मैं जयचन्द्र सुनाम, वैश्य छावडा कहै सुगाम ॥४॥ मैं तो आतम द्रव्य विशुद्ध, जाति नाम कुल सबै विरुद्ध । तौऊ कर्मतणे संयोग, है विभाव परिणतिको भोग ॥५॥ अशुभ मंदते शुभ अनुराग, धर्मबुद्धि जागी धनि भाग । तव विचार यह भयो सुसार, जैन ग्रंथ पढ़ि करि निरधारि॥६॥ पढ़ते सुनतै भयो सुबोध, न्याय ग्रंथको भी कछु शोध । स्याद्वाद जिनमतमैं न्याय, ताकी रीति लखी कछु पाय ॥७॥ तर्फे विचारी इस कलिकाल, जैनन्याय बुध विरले भाल । प्रकरण देश वचनिकारूप, लघु सो होय करूं जु अनूप ॥८॥ तब यह लख्यौ न्यायको द्वार, कियो वचनिकारूप उदार । भव्य पढ़ौ मन लाय अशेष, न्याय देशमें करो प्रवेश ॥ ९॥ निज परमतको जानों भेद, मिटै विपर्यय बुधिको भेद । स्वपरतत्त्वकौं जानि विचार, तजो विभाव रहो अविकार॥१०॥ रत्नत्रय मारग लगि ताम, पहुचो मुक्तिपुरी सुखधाम । यह उपदेश जिनश्वरदेव, भाँष्यो ग्रहो करो तिनि सेव ॥११॥ पंडितजनसूं यह अरदासि, करूं परोक्ष मान मद नासि । हीनाधिक जो यामैं होय, मूल ग्रंथ लखि सोधो सोय ॥१२॥ (दोहा) बालबुद्धि लखि संतजन, हसै न कोप कराय । इहै रीति पंडित गहै, धर्मबुद्धि इम भाय ॥ १३ ॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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