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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २१३ __ याका अर्थ-जातें जैसैं सामान्यमात्र विशेषमात्र दोऊ मात्र कह्या तैसैं प्रतिभासै नांही है बहुरि यह कार्य कारणहारा नाही है ॥ ६२ ॥ __ आगैं इहां आचार्य अन्यवादीकू पूछ हैं-जो सामान्य आदि एकान्तस्वरूप कार्यकू करै सो आप समर्थ होय करै है कि असमर्थ होय करै है ? तहां समर्थ पक्षमैं दूषण कहैं हैं; समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६३ ॥ याका अर्थ-जो कहै सामान्य आदि समर्थ होय कार्य करै है तो कार्यकी सर्वकाल उत्पत्ति चाहिये जाते अन्यकी अपेक्षारहितपणां है ६३ बहुरि कहै सहकारीकी सापेक्षतें कार्य करै है यातें सर्वकाल उत्पत्ति नाहीं है तौ तहां कहैं हैं;परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥६४॥ याका अर्थ-जो परकी अपेक्षा करै तौ ताकै परिणामीपणां आवै पहलै न किया सहकारी आया तब किया तब सामर्थ्य नवीन आया तारौं परिणामी भया अर जो ऐसे न मानिये तो कार्य होनेका अभाव है। भावार्थ-सहकारिरहित अवस्थावि तौ कार्य न करै अर सहकारीका संबंध भये कार्य करै तब पहला आकार छोड्या उत्तर आकार ग्रह्या दोऊमैं आप स्थित रह्या, ऐसे परिणामकी प्राप्ति होते परिणामीपणां आया, बहुरि ऐसे न मानिये तो जैसैं पहले अभाव अवस्थाविर्षे कार्य करनेका अभाव है तैसैं ही उत्तर अवस्थावि अभाव है ॥६॥ आरौं दूसरा पक्षमैं दोष कहैं हैं; स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ॥६५॥ __याका अर्थ-आप असमर्थ होय तौ कार्य करनेवाला नाही है जैसैं पहले सहकारी विना कार्य करणहारा न था तैसैं अब भी नाही॥६५॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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