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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १४१ ग्रह्या है संकेत जाका ऐसा जो दंड ताका नाश होतें अब अगृहीतसंकेतदंड अन्य ही ग्रहणमैं आवै है । ऐसें होते तिस अगृहीतसंकेतदंडसे दंडी ऐसा कहनां न होय, तैसैं ही ग्रहण करी है व्याप्ति जाकी ऐसे धूमका नाश होते अन्य धूमके देखनेंतै विना व्याप्ति ग्रहण अग्निका ज्ञानका अभाव होय । सो दंडीका व्यपदेश तथा धूमतें अग्निका ज्ञान होय ही है, अर ते अनित्य हैं ता” अनित्यविर्षे संकेत होय ही है । बहुरि इहां कहै-जो दंडी इत्यादिविषै तौ सदृशपणांतें यह प्रतीति होय है तातें हमारी पक्षमैं दोष नाही, तौ इहां शब्दविर्षे भी सदृशप-. णातैं अर्थकी प्रतीति होतें कहा दोष है ? शब्दकू नित्य मानि खोटा अभिप्राय क्यों करना, ऐसैं माने अन्तरालविर्षे अदृष्ट सत्त्वकी भी कल्पना न होय । बहुरि जो और कह्या कि-शब्दके व्यंजक पवनकै न्यारा न्यारापणां है तातैं एक काल सुननां न होय है; सो भी कहनां विना सीखे कह्या है;-समान एक कर्णइन्द्रियकरि ग्रहणमैं आवै, अर समान ही जाका उदात्त अनुदात्तादि धर्म, अर समान ही क्षेत्रविर्षे तिष्ठते विषय विषयी कहिये कर्ण इंद्रिय अर शब्द, तिनिविर्षे न्यारे न्यारे पवनकरि न्यारे न्यारे ग्रहणका अयोग है एक ही काल ग्रहण चाहिये । सो ही कहै है;-श्रोत्र इन्द्रिय है. सो समान क्षेत्रवि तिष्ठता समान इन्द्रियकरि ग्रहणयोग्य समान ही जिनिका धर्म, ऐसे जे गकारादि शब्दनामा पदार्थ तिनिका. ग्रहणकै अर्थि न्यारा न्यारा संस्कार करनेवाला पवनकरि संस्कार करने योग्य नाही होय है, एक ही पवन संस्कारकतें गकारादि पदार्थका ग्राहक होय है जाते श्रोत्र है सो इन्द्रिय है, इन्द्रिय हैं ते ऐसे ही हैं, जैसैं नेत्र इन्द्रिय है सो अंजनादिकका संस्कार एकही करि अपना सर्व विषयकू ग्रहण करै है, तिसविर्षे न्यारे न्यारे अंजनादिकके संस्कार
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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