SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित प्रकाशकी समीपताकी अपेक्षाकरि जल तैसे ही चन्द्रमा सूर्य आदिके आकाररूप परिणाम जाय है यारौं न्यारा न्यारा प्रतिबिंब दीखें हैं ते अनेक हैं, तातैं अनेक प्रदेशविर्षे एक काल समस्तस्वरूपकरि ग्रहणमैं आवै ऐसा एक विषयका असंभाव्यमानपणांत तिसविर्षे प्रवर्त्तमान जो प्रत्यभिज्ञान सो प्रमाण नांही यह निश्चय भया । तैसें ही नित्यपणां भी प्रत्यभिज्ञानकरि नाही निश्चय होय है जाते नित्यपणां है सो एक वस्तुकै अनेकक्षणमैं व्यापीपणां है, सो ऐसा नित्यपणां तौ वीचिमैं-अन्तरालविर्षे सत्ताका ग्रहण विना निश्चय न कह्या जाय । बहुरि प्रत्यभिज्ञानहीका बलकरि अन्तरालविर्षे सत्ता न जानी जाय है-वीचिमैं सत्ताका संभव नाही सिद्ध होय है जातै प्रत्यभिज्ञानके सादृश्यतें भी संभवनेका अविरोध है। बहुरि घट आदिविौं भी ऐसा प्रसंग. नांही आवै है जाते ताकी उत्पत्तिविर्षे अन्य अन्य मांटीके पिंडस्वरूप कारणका असंभवपणांकरि अंतरालविर्षे सत्ताका साधनेंका समर्थपणां है, भावार्थ-पहले घटकू देख्या पी, तिसहीकू फेरि देख्या -तब एकत्वप्रत्यभिज्ञान भया जो यहु घट सो ही है, तहां कहै याके अन्तरालमैं सत्ता कैसैं सधी ? ताका समाधान किया है जो अन्य अन्य मांटीके पिंड घट उपजै ताकी जुदी सत्ता होय, इहां अन्य मांटीका पिंडतै उपजनां नाही तारौं तिसहीकी सत्ता सधी । अर शब्दविर्षे ऐसैं नाही-पहले शब्द सुन्यां ताका कारण अन्य ही था फेरि सुन्यां ताका कारण अन्य है । तातै अपूर्व कारणनिका व्यापार संभवने” अन्तरालविर्षे सत्ताका संभव नांही है । बहुरि जो और कह्यासंकेतकी अन्यथा अप्राप्ति है जो शब्द नित्य न होय तौ पदार्थविर्षे संकेत नाही बरौं । सो ऐसा कहनां भी पुरुषका स्वरूप विना जाण्यां कहै है जातें अनित्यविषै भी यह जोड़नां बण है । सो ही कहै है
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy