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________________ १२२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पर्णा कूटस्थ जो सदाकाल एक अवस्थारूप रहै ऐसा नित्यपक्षविर्षे नांही बण है। बहुरि क्षणिक जो समय समय अन्य अन्य ही होय ताविर्षे भी नांही बण है, तातै परिणामीपणां होते ही बणै है ऐसैं आगें कहसी । इहां परिणामीकी निरुक्ति ऐसी जो पूर्व आकारका तौ परिहार उत्तर आकारकी प्राप्ति अर दोऊमैं स्थिति ऐसा जाका लक्षण सो परिणाम, सो जाकै होय सो परिणामी कहिये । बहुरि कृतकका ऐसा स्वरूप कहनेंतें कार्यपणांका कोई स्वरूप कहै जो स्वकारणसत्तासमवायकू कार्यत्व कहिये, तथा अभूत्वाभावित्वकू कार्यत्व कहिये, तथा 'अक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धयुत्पादकत्वं' ऐसा कहै, तथा 'कारणव्यापारानुविधायित्वं' ऐसा कहै, ते सर्व निराकरण किये । कृतकका ऐसा ही अर्थ सर्वत्र जाननां । ऐसैं कृतकपणां हेतु है सो शब्दकै परिणामीपणांकू साधै है, सो परिणामीपणांतें व्याप्य है तातें व्याप्यनामा हेतु भया॥६॥ आरौं कार्यहेतुकू कहैं हैं;__ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ॥ ६१ ॥ याका अर्थ-या प्राणीविर्षे बुद्धि है जाते याकै वचनादिककी प्रवृत्ति है । इहां आदि शब्दतै व्यापार आकारविशेष आदि लेनें । वचनादिकी चतुरता आदि बुद्धि विना होय नाही । ऐसें बुद्धिका कार्य वचनादिक हैं ते बुद्धिनामा कारण जो साध्य ताकू साधैं हैं तातै कार्यनामा हेतु भया ॥६१॥ आगें कारणहतुकू कहैं हैं: अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६२ ॥ याका अर्थ-इहां छाया है जाते छत्र देखिये है। काहू जायगां छत्र देख्या तब जाणीं जो याकै नीचें छाया भी है, जहां छत्र है तहां
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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