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________________ १२० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित हित कालके अंतरसहित होय तिनिविर्षे कारणका व्यापारका आश्रितपणां कहां ? भावार्थ-ऐसा तर्क किया जो कोई पुरुष रात्रिकू जागते कार्य विचारि सूता पी, प्रभात जाग्या तब जो विचाया था सो यादि आया तहां पहली अवस्थाका ज्ञान पीछली अवस्थाका ज्ञानकू कारण भया । बहुरि मरणकै पहले अरिष्ट आवै है तिनिळू मरण कारण है। ऐसे कालके अंतर होतें भी कार्यकारणभाव होय है । ताका समाधान आचार्य किया—जो ऐसैं नही जाते कार्य है सो कारणके व्यापारकै आश्रय है सो जिनिकै कालका अंतर है तिनिकै कारणका व्यापारका आश्रय कहांतें होय । कार्य-कारणकै तौ अन्वयव्यतिरेकपणां है । जो कारण होय तौ कार्य होय ही होय, कारण न होय तो कार्य न होय । सो जहां कालका अन्तर होय तहां कारणके व्यापारका आश्रय कार्यकै संभवै नांही, बिना व्यापार कार्य होय नाही, ऐसा जाननां ॥ ५८॥ ___ आगैं सहचर हेतुकै भी स्वभाव कार्य कारण हेतुनिीवर्षे अंतर्भाव नांही है, ऐसा दिवावै है ; सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहो. त्पादाच ॥ ५९॥ याका अर्थ-जे सहचारी एककाल लारा रहैं हैं तिनिकै भी तादात्म्य अर तदुत्पत्ति नाही होय है जानै परस्पर स्वरूपभेदकरि परिहार पाइए है अर एक काल दोऊका उत्पाद है। तारौं व्याप्यव्यापकभाव अर कार्यकारणभाव नाही है तातें न्यारा ही हेतुपणां है । इहां यहु अभिप्राय है-परस्पर परिहारकरि जिनिका ग्रहण होय है तिनिकै तादात्म्य नाही तातें तो स्वभावहेतुविौं अन्तर्भाव नाही । अर जिनिकी साथ उत्पत्ति है तिनिका कार्यवि तथा कारणविर्षे अन्तर्भाव नाही जाते एककाल वत्तै जिनिकै कार्यकारणभाव नाही है, जैसैं गऊकै बावां दा
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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