SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पूर्वै प्रवर्ते, साध्यतैं पीछें दीखै, साध्यकै साथि ही रहै, ऐसें छह भेद हैं । इहां सूत्रविषै समास ऐसें करनां - पूर्व, उत्तर, सह, इनि तीन शब्दनिका द्वन्द्वसमासकरि पीछें चर शब्द करनां सो द्वंद्वतैं चरशब्द प्रत्येककै लगावणां, तब पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर ऐसा होय । पीछें व्याप्य आदिकार द्वंद्व करनां तातैं पूर्वोक्त अर्थ भया ॥ ५४ ॥ इहां सौगत कहिये बौद्धमती सो कहै है – विधिका साधन दोय प्रकार ही है, स्वभाव अर कार्य ऐसें । बहुरि कारणकै तौ कार्य अविनाभावका अभाव है तातैं साध्यका लिंग नांही जातैं कारण हैं ते कार्यसहित अवश्य होय नाही ऐसा वचन है । बहुरि इहां कहोगे जो - जा कारणका सामर्थ्य काहूतें रुकैं नांही ऐसा कारण है सो कार्य प्रति गमक होय है सो ऐसा कहनां न बनेगा जातें सामर्थ्य तौ इन्द्रियगोचर नांही जो कारण मैं विद्यमान भी है तौ ताका निश्चय होय सकै नाही ? ताका समाधान आचार्य करें हैं—ऐसा कहनां विना विचारे है, ऐसें दिखावनेकूं सूत्र कहैं हैं;-- रसादेक सामग्र्यनुमानेन रूपानुमानामिच्छाद्भरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणान्तरावैकल्ये ॥ ५५ ॥ 1 याका अर्थ — आस्वादमैं आया जो रस तातैं तिसके उपजावनहारी फल आदि सामग्री ताका अनुमान कीजिये है । पीछें तिस अनुमानतें रूपका अनुमान होय है ऐसैं मानता जो बौद्धमती ताकरितानैं किछु कारणकूं हेतु मान्यां ही ? जिस कारणविर्षे सामर्थ्यका रोकनेवाला न होय तथा सहकारी अन्यकारणका विकलपणां न होय, समस्त सहकारी आय मिलै तिस कारणकै कार्य जो साध्य ता प्रति गमकपणां होय है, जातैं पहला रूपका क्षण है सो अपनां सजातीय जो
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy