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________________ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्समान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । अंतरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः ॥६५॥ अर्थ—सामान्य अर समवाय ये दोऊ नित्य हैं अर एक एक हैं। ते दोऊ यदि एक एक पदार्थविर्षे समस्तपनेकरि वरतें तदि एक एक नित्यपदार्थविर्षे ही समाप्त होंय तब अन्य पदार्थमें कौन जाय अर इन दोऊनकैं अंश, अवयव मान्या नाहीं । तब अनित्य जे उपजने विनशने वाले कार्य आदि पदार्थ हैं ते सामान्य अर समवाय विना ठहरे । तब सामान्य अर समवाय ये दोऊ ही आश्रय विना न होंय तब उपजने, विनशनेवाले पदर्थनिकी कोंन विधि मानिये इनका सत्व अर प्रवर्तना न ठहरै । ऐसें दोष आवै ॥ ६५ ॥ ___ आगे कहैं हैं कि वैशेषिककै परस्पर सापेक्षा न मानने तैं भेदएकान्तमें पहले कहे ते, अर अब कहैं हैं सो दूषन आवै है सर्वथानभिसंबन्धः सामान्यसमवाययोः। __ ताभ्यामर्थो न संबंधस्तानि त्रीणि खपुष्पवत् ॥ ६६ ॥ अर्थ—सामान्यकै अर समवायकैं वैशेषिकनैं सर्वथा संबंध नाहीं मान्या है । बहुरि तिन दोऊनितें भिन्न पदार्थ द्रव्य गुण, कर्म ये संबंधरूप नाहीं होय है जातें परस्पर अपेक्षा रहित सर्वथाभेद मान्या है । तातें ऐसा ठहरै है कि परस्पर अपेक्षा विना सामान्य, समवाय अर अन्य पदार्थ ये तीनूंही आकाशके फूलकी तरह अवस्तु हैं । वैशेषिकनें कल्पनामात्र वचनजाल किया है । ऐसें कार्य कारण, गुण गुणी, सामान्य विशेष इनकै अन्यपनेका एकान्त भेदएकान्तकी तरह श्रेष्ठ नाहीं॥६६॥ __ आगें अन्यवादी कहै कि कार्यकारण आदिकैं तो तुम कह्या तैसैं अन्यता तथा अनन्यताका एकान्त मत होहु । बहुरि परमाणूनिकैं तो
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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