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________________ कह ४ दूसरा-परिच्छेद । -088880 दोहा। अद्वैतादिविकल्पपरि, सप्तभंग सुविचारि । कहैं मुनी तिनकू नमूं , मंगलवचन उचारि ॥१॥ अब एकानेकविकल्पपरि सप्तभंगके द्वितीयपरिच्छेदका प्रारंभ है तहां प्रथम ही अद्वैतएकान्तपक्षविर्षे दूषण दिखावै हैं अद्वैतकांतपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुद्धयते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते ॥ २४ ॥ अर्थ-अद्वैतएकांतपक्ष होनेरौं कर्ता, कर्म आदि कारकनिके बहुरि कियानिके भेद जो प्रत्यक्षप्रमाणकरि सिद्ध हैं सो विरोधरूप होय हैं। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तो आप ही कर्ता आप ही कर्म होय नाहीं । अर आपहीतें आपकी उत्पत्ति हू नांहीं होय । ___ अद्वैत नाम एकस्वरूप होय ताका है । जातें दोयकरि युक्त होय सो द्वीत है, बहुरि द्वीत ही होय सो द्वत है अर द्वैत न होय सो अद्वैत है ऐसा अद्वैतशब्दका व्याख्यान है । ताका एकांत होय वही अद्वैत है ऐसा अभिप्राय है, सो यह अद्वैतएकांतपक्ष है तिसके होते संत दृष्ट कहिये साक्षात् तथा अनुमानगोचर भेद है सो विरोध्या जाय है तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि सिद्ध जो कर्ता आदि कारकनिका भेद अर स्थान ( ठहरना ) गमन आदि अचलन तथा चलनरूप क्रियाका भेद प्रसिद्ध है सो कैसैं निध्या जाय ? अपि तु नाहीं निषेध्या जाय । वेदांती एक ब्रह्मरौं भये कर्ता कर्म आदिकका भेद मानें है सो सर्वथा नित्य एक ब्रह्म का होना आ०-३
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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