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________________ ३२ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्क्षाकरि । बहुरि सत् पर्यायनयकी अपेक्षाकरि एक नाहीं है। यहां कोई कहै—द्रव्य तौ अनंत हैं एक द्रव्य कैसे कही ? ताको उचर ऐसो-जो परमसंग्रहनय एक सन्मात्रका ग्राहक है ताकी अपेक्षाकरि एक कहनेमैं दोष नाहीं । बहुरि कथंचित् जीवादिक वस्तु अनेक ही हैं जातें भेदरूप न्यारे न्यारे देखिये हैं। बहुरि क्रमकरि अर्पण किया जो एकपणां, अनेकपणां, ता” कथंचित् एकानेकस्वरूप है । बहुरि युगपत अर्पण किया जो एकपणां, अनेकपणां ताकरि कथंचित् अवक्तव्य है । तैसैं ही कथंचित् एकावक्तव्य, कथंचित् अनेकावक्तव्य अर कथंचित् एकानेकावक्तव्य है। ऐसैं सप्तभंगीप्रक्रिया योजनी । बहुरि जैसैं पूर्वं अस्तित्वकू नास्तित्त्वकरि अविनाभावी विशेषणपणां हेतुकरि साधारण कह्या था तैसैं यहां एकपणां, अनेकपणां आदि सप्तभंगीनिविर्षे भी अपणां प्रतिपक्षीनिकरि विशेषणपणां हेतु” अविनाभावी साधना । ऐसें एकत्त्व अनेकत्त्वनिकरि अनवस्थित जीवादिक वस्तु सप्तभंगीवाणीविर्षे प्राप्त किया कार्यकारी है। सर्वथा एकान्तविर्षे क्रमाक्रमकार अर्थक्रियाका विरोधहै तातै कार्यकारी नाहीं है ऐसे जानना ॥ २३॥ चौपाई। स्वामि समन्तभद्रकी वाणि, सप्तभंगकी विधिमय जाणि । सेवो रविकर सम भवि भरि, मिथ्यातमकू करि है दूरि ॥१॥ इति श्री आप्तमीमांसा नाम देवागम स्तोत्रकी संक्षेप अर्थरूप दश भाषामय वचनिका विर्षे प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ।
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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