SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनन्तकीर्ति - ग्रन्थमालायाम् कल्पना है— वस्तुका रूप नाहीं । ऐसें अपने पक्षका साधन अर `परपक्षका दूषणरूप बचनकूं समेटता संता — संकोचता संता कहैं हैं-एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । ३० Parade यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः || २१ ॥ अर्थ - एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार न्यायकरि सप्तभंगीविधविषै निषेधकर अनवस्थित जीवादिक वस्तु हैं सो अर्थकृत् कहिये अर्थक्रिया करें हैं- कार्यकारी हैं । बहुरि नेति चेत् कहिये अन्यवादी ऐसें नाहीं ( मानैं ) तौ तिनकै बाह्य अंतरंग उपाधि कहियें कारणनिकर कार्य तिन यादीनिनें मान्या है तैसें नाहीं होय है । -तहां जीवादि वस्तु सत् ही है अथवा असत् ही हैं ऐसें सर्वथा न होय किन्तु कथंचित् सत् हैं अर कथंचित् असत् हैं ऐसें होय ताकूँ अनवस्थित कहिये सो ही वस्तु कार्यकरनेवाला है । बहुरि जो अभ्यवादी सर्वथा एकान्तकार सत् ही है अथवा असत् ही हैं ऐसा अब• स्थित कहैं हैं तिनकै तिननें जैसा कार्यसिद्ध होना बाह्य अंतरंग सहका कारण अर उपादानकारणकार मान्या है तैसा नाहीं सिद्ध होय है । याकी विशेष चरचा अष्टसहस्रीतैं जानना ॥ २१ ॥ आगैं तर्क — जो वस्तु अनेक धर्मस्वरूप मान्या तहां अस्तित्व आदि धर्मनिकै धर्मीकरि सहित उपकार्य - उपकारकभाव होतैं संतें धर्मनिकै उपकार धर्मी करें है कि धर्मीकै उपकार धर्म करे है। तहां भी धर्मी एक शक्तिकरि करे है कि अनेक शक्तिकरि करे है ? । तहां भी वादी दूषण बतावै तिन सर्वहीका निराकरण करते संतैं आचार्य कहैं हैं— जो एकधर्मीविषै अनेक धर्म हैं तातैं कथंचित् सर्व प्रकार संभव है धर्मधर्मीकै अंग-अंगीभाव है तातैं अनेकांत कहने मैं विरोध नाहीं है
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy