________________
नयचक्रसार, हि० अ०
तरह नित्यानित्य स्वभावी सबगुण है. वह सव द्रव्योंमें अपनी २ क्रियाका कारण होता है.
तत्र चलनसहकारित्वं कार्य धर्मास्तिकायं द्रव्यस्यप्रतिप्रदेशस्थचलनसहकारिगुणा विभागाः उपादानकारणं कार्यस्यैव कार्यपरिमनात् तेन कारणत्वपर्यायव्ययः कार्यत्वपरिणामस्योत्पादः गुणेवं ध्रुवत्वं प्रतिसमयं करणस्यापि उत्पादव्ययौ कायस्याप्युत्पादव्ययावित्यनेकान्तजयपताकाग्रन्थे एवं सर्वद्रव्येषु सर्वेषां गुणानां स्वस्वकार्यकारणात् ज्ञेया इति प्रथमव्याख्यानम् ॥
अर्थ-जैसे-धर्मास्तिकायका चलनसहकारीपना मुख्य कार्य है. अधर्मास्तिकायका स्थिरसहायिपना मुख कार्य है. आकाशद्रव्य का अवगाहदान मुख्य कार्य है. जीवका जानपना, देखना रूप उपयोग मुख्य कार्य है और पुद्गल का वर्ण गंध रस स्पर्श मुख्य कार्य है इत्यादि स्वकार्यका उत्पन्न होना ही भवन धर्म है
और जो भवन धर्म है वही उत्पाद है और उत्पाद. व्यय सहित होता है. इस तरह भवन धर्मका स्वरूप तत्वार्थ सूत्र में कहा है ।
उत्पाद, व्यय दो प्रकार से होता है (१) प्रयोगसा (२) विश्रसा यह परिणामिक और स्वाभाविक धर्मसे होता हैं. स्वाभाविक उत्पाद व्यय का स्वरुप कहते है. धर्मास्तिकायादि छे द्रव्यों में अपने २ चलन सहकारादि गुणेंकी प्रवृत्तिरूप अर्थ क्रिया होती है. और चलनसहकारित्व धर्म धर्मास्तिकाय के प्रतिप्रदेशमें रहा