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________________ नित्य स्वभाव. (६४) ल्लिख्यते विस्त्रसापयोगजभेदाद् द्विभेदो सर्वद्रव्याणं चलन सहकारादि पदार्थ क्रियाकारणं भवत्येव । अर्थ--नित्य स्वभावके दो भेद है. (१) कूटस्थ-प्रदेशादिभेद से (२) परिणामिक-ज्ञानादि गुणों के भेदसे. ये दोनो भेद उत्पाद व्यय रूपसे अनेक प्रकारके हैं. तथापि किंचितलिखते हैंविस्रसा, प्रयोगज भेद से दो प्रकार के हैं । सब द्रव्यों में चलन सहकारादि रूप क्रिया के कारणसे होते हैं। .. विवेचन-अन्य प्रन्थों में नित्यपना दो प्रकारसे कहा है. (१) कूटस्थ नित्यता (२) परिणामी नित्यता । जीवके असंख्याते प्रदेश संख्यापने तथा आकाशप्रदेशका क्षेत्रावगाह और गुण के अ. विभाग पर्याय नहीं पलटते यह कूटस्थ नित्ययता है. .. . ज्ञानादिगुण सब परिणामिक नित्यतारूप है. क्योकि गुणका धर्म ही ऐसा है जो समय समय कार्यरूपसे परिणत होता है. इस लिये ज्ञानादिगुण परिणामिक नित्यतापने है. अगर इनको कूटस्थ नित्यतापने मान लेंतो १ पहले समय जो ज्ञानसे जाना वहीं जानपना सर्वदा रहेगा परन्तु ऐसा नहीं होता. और क्षेय (जानने योग्य वस्तु ज्ञेय है) नवीन भावसे नित्य परिणत होता है उस नवीन अवस्थाको शान नहीं जान शक्ता इससे ज्ञानगुणकी अयथार्थता प्रतीत होती है. और ज्ञेय जो घट पटादि जैसे पलटते हैं. उसको यथावत् जाने वही यथार्थ ज्ञान है. वास्ते ज्ञानगुण उन नवीन २ शेयको जाने यह परिणामिक नित्य स्वभाव है । इस
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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