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स्याद्वाद स्वरूप.
समझना जितना यथार्थ - निश्चयरूप,
शब्दका क्या काम ? घटको घटरूपसे यथार्थ है - निश्चयरूप है, उतना ही घटको अमुक अमुक दृष्टिसे अनित्य और नित्य दोनो रूपसे, समझना है । इससे स्याद्वाद अव्यवस्थित या स्थिर सिद्धान्त भी नहीं कहा जा सकता है ।
अब वस्तुके प्रत्येक धर्म में स्याद्वाद की विवेचना, जिसको 'सप्तभङ्गी ' कहते हैं, की जाती है ।
विरुद्ध गुणवाली प्रकृतिको माननेवाला सांख्यदर्शन; x पृथ्वीको परमाणुरुपसे नित्य और स्थूलरूपसे अनित्य माननेवाला तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व प्र aat सामान्य और विशेषरुप से स्वीकार करनेवाला x नैयायिक वैशेषिक दर्शन; अनेक वर्णयुक्त वस्तुके भनेकवर्णाकारवाले एक चित्रज्ञानको, जिसमें अनेक विरुद्ध वर्ण प्रतिभासित होते है- माननेवाला* बौद्धदर्शन प्रमाता,
*" इच्छन् प्रधान सच्चायोर्विरुद्धैर्गुम्फित गुणैः । सांख्य: संख्यातां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥
-- हेमचन्द्राचार्यकृत गोतरागस्तोत्र |
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" चित्रमेकमनेकं च रुपं प्रामाणिकं वदन् । योगा वैशेषिको वायि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् - हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र ।
भावार्थ- नैयायिक और वैशेषिक एक चित्र रुप मानते हैं । जिसमें अनेक वर्ण होते हैं उसे चित्र - रुप कहते हैं । इसको एकरूप और अनेकरूप कहना यह स्याद्वादको सीमा हैं ।
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§ " विज्ञानस्यैकमा कारं नानाSSकारकरम्बितम् ॥ इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् "इ - हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र ।